1857 की क्रांति का प्रमुख केंद्र रहा नारनौल

प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नारनौल का योगदान  

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में दिल्ली में भारतीय सेना की पराजय के बाद ब्रिटिश सरकार ने गुडगाँव में क्रांतिकारियों के दमन के लिए 2 अक्टूबर,  1857 को ब्रिगेडियर जनरल शावर्स के नेतृत्व में सेना भेजी| जिसने सबसे पहले रेवाड़ी पर आक्रमण किया| किन्तु राजनीति के चतुर खिलाडी राव तुलाराम ने रेवाड़ी पहले ही छोड़ दी थी| हडसन के शब्दों में-"पक्षी उड़ गया है और घोंसला खाली पड़ा है| वह बहुत चतुर व्यक्ति था और उसने बड़ी तैयारी कर राखी थी और यदि दिल्ली में हमारी हार हो जाती तो इस क्षेत्र में हमारा विनाश करने वाला वह पहला शख्स होता| इसकी सैनिक तैयारी कमाल की है| सभी प्रकार से शस्त्र, तोपें, छकड़े और बारूद यहीं बनाते हैं| यहाँ बहुत अच्छी फाउंड्री लगी हुई हैं| वास्तव में इसने काफी कुछ कर लिया था| यहाँ कुछ ही महीनों में इसकी स्थिति इतनी मजबूत हो जाती कि आसपास के क्षेत्र पर इसका अधिकार हो जाता और यह पटियाला, जींद जैसा बड़ा राज्य स्थापित कर लेता|" 

रेवाड़ी के बाद शावर्स ने झज्जर पर आक्रमण किया और वहां के नवाब अब्दुर्रहमान खां को बंदी बनाकर दिल्ली भेज दिया| इसके बाद फरुखनगर और बल्लबगढ़ पर हमला किया और फरुखनगर के नवाब अहमद अली और बल्लबगढ़ के राजा नाहर सिंह को भी बंदी बनाकर दिल्ली ले गया| जैसे ही शावर्स दिल्ली गया हरियाणा के सभी बचे हुए क्रांतिकारियों ने मिलकर एक साथ लड़ने की योजना बनाई और इसके लिए नारनौल को चुना गया| इन क्रांतिकारियों में हिसार के शहजादा आजिम, झज्जर के नवाब के दामाद जर्नल समद खां और राव तुलाराम के अलावा जोधपुर के देशभक्त भी शामिल थे|

जब इस गठबंधन की खबर ब्रिटिश सरकार को मिली तो इन्हें कुचलने के लिए कर्नल जेरार्ड के नेतृत्व में सेना भेजी गई| इस सेना ने 16 नवम्बर को नारनौल पर चढ़ाई कर दी| उस समय भारतीय सेना एक किलानुमा सराय में डटी हुई थीं| भारतीय सेना लगभग पांच हजार सैनिकों की थी और उनके पास पांच-सात मध्यम दर्जे की तोपें भी थी| जैसे ही ब्रिटिश सेना के आने की सूचना मिली राव तुलाराम के नेतृत्व में भारतीय सेना किला छोड़ कर शहर से बाहर आ गई और नसीबपुर गाँव के पास ब्रिटिश सेना पर टूट पड़ी|

नसीबपुर के मैदान में दोनों सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ | देशभक्त सेना बेहद वीरता से लड़ी युद्ध में भारतीय सेना नायक राव किशन सिंह, राव रामलाल, शहजादा मुहम्मद आजिम तथा जनरल समद खां का पुत्र शाहीद भी शहीद हो गए| किन्तु वीर भारतीयों ने ब्रिटिश सेनापति जेरार्ड को भी मौत की नींद सुला दिया| कौलफील्ड ने ब्रिटिश सेना की कमान संभाली और उसने अपनी सेना को तोपों के मुंह खोल देने का आदेश दिया | जिसके बार ब्रिटिश तोपों ने आग उगलना शुरू किया तो भारतीय सेना दो हिस्सों में बंट गई कुछ सैनिक तोपों की रेंज से बाहर जाने के लिए पीछे हट गए  तो कुछ तोपों के बिलकुल पास पहुँच गए| जो सेना बिलकुल तोपों के निकट आ गई थी उसपर ब्रिटिश सेना ने अचानक हमला बोल दिया| भारतीय पूरी ताक़त से लड़े किन्तु कम संख्या और कम तोपों के कारण ब्रिटिश सेना का अधिक देर मुकाबला नहीं कर सके और दिन ढलते ही ब्रिटिश सेना ने यह युद्ध जीत लिया| नारनौल के युद्ध की समाप्ति के साथ ही हरियाणा में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का अंत हो गया|

इस युद्ध में भारतीय सेना की हार भले ही हुयी लेकिन अंग्रेजों को भी भारी नुकसान हुआ, क्योंकि भारतीय बड़ी वीरता से लड़े | खुद अंग्रेजों ने इसका उल्लेख किया है| होम्स लिखता है-"शत्रु ने गाइड्स तथा कारबायनियर्स के आक्रमण को बहदुरी से झेला|"

मालेसन लिखता है-"यह एक वीरतापूर्ण युद्ध था| शत्रु इतने साहस और वीरता से पहले कभी नहीं लड़े थे| वे न घबराये न डरे| हम पर इतना भीषण प्रहार पहले कभी नहीं हुआ| ब्रिटिश सेनाओं ने आज तक ऐसी भयानक टक्कर किसी भी शत्रु से न ली होगी|" वह आगे लिखता है-"उन्होंने बहादुरी से अपनी जानें न्यौछावर कर दी| सरेंडर करने का तो विचार तक नहीं किया|"

इस युद्ध में लगभग पांच हजार वीर योद्धाओं ने अपना बलिदान दिया| राव राजा तुलाराम अपनी सेना को पुनर्गठित करने के लिए राजस्थान की ओर चले गए और वहां से भारतीय राजाओं के प्रतिनिधी के रूप में अफगानिस्तान होते हुए रूस के तत्कालीन शासक जार से सहयोग की अपील करने के लिए इंतज़ार करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए|


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